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कबीर ग्रंथावली

रामकिशोर शर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :688
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2293
आईएसबीएन :81-8031-000-0

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प्रस्तुत है कबीर की रचनाओं का मूल पाठ के साथ समग्र संग्रह...

Kabir Granthawali

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

कबीर निर्गुण सन्त काव्यधारा के ऐसे शब्द-साधक हैं जिन्होंने अपने युग की धार्मिक, सामाजिक एंव राजनीतिक व्यवस्था से टकराकर अद्भुत शक्ति प्राप्त की। पारम्परिक सांस्कृतिक प्रवाह में सम्मिलित प्रदूषित तत्वों को छानकर उसे मध्यकाल के लिए ही आस्वादनीय नहीं, बल्की आधुनिक जनमानस के लिए भी उपयोगी बना दिया। भारतीय धर्म साधना में निडर तथा अकुंठित व्यक्तित्व विरले है। पंडितों, मौलवियों, योगियों आदि से लोहा लेकर कबीर ने जन साधारण के स्वानुभूतिजन्य विचारों और भावों की मूल्यवत्ता स्थापित की। कबीर की वाणी संत-कंठ से निसृत होकर साधकों, अनुयायियों एंव लोक जीवन मे स्थान एंव रूचि भेद के अनुसार विविध रूपों में परिणित हो गयी। इसलिए कबीर की वाणी के प्रामाणिक पाठ निर्धारण की जटिल समस्या खड़ी हो गयी। कबीर पंथ में बीजक की श्रेष्ठता मान्य है, विद्वानों ने ग्रंथावलियों को महत्व दिया है। सामान्य जन के लिए लोक में व्याप्त कबीर वाणी ग्राह्र है।
अतः तीनों परम्परओं में से किसी को भी त्यागना उचित नहीं है। फलतः कबीर की रचनाओं का समग्र रूप तीनों के समाहार से ही संभव है। प्रस्तुत ग्रंथावली का संपादन इसी दृष्टि से किया गया है। इसमें अपनी इच्छित दिशा में आवश्यकता से अधिक खींचकर पाठकीय सोच को कुंठित करने की चेष्टा नहीं की गयी है। कबीर-वाणी के प्रामाणिक एवं समग्र पाठ से तथा उसमें निहित विचारों, भावों एवं समग्र पाठ की दृष्टि से तथा उनमें निहित विचारों, भावों एंव अनुभूतियों को उद्घाटित करने की दृष्टि से यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी।

प्राक्कथन

जो व्यक्ति काल के विरुद्ध खड़ा होता है उसे चतुर्दिक से आघात सहने पड़ते हैं, सम्पूर्ण अस्तित्व को मिटा देने वाले आघातों से जब वह अक्षत शेष रह जाता है तो जनमानस इस अनुमान से उसकी ओर दौड़ पड़ता है कि उसमें कुछ असाधारण अवश्य है। उसके विषय में तरह-तरह की किंवदन्ती बनने लगती हैं। निरन्तर वह असाधारण होता जाता है, यहाँ तक कि उसे ईश्वरीय अवतार भी मान लिया जाता है। कबीर कुछ इसी तरह के व्यक्ति हैं, जो गौतम बुद्ध, महावीर आदि की तरह राजघराने की शक्ति सम्पन्नता तथा वैभव की पृष्ठभूमि नहीं रखते थे, एक नितान्त उपेक्षित तिरस्कृत परिवार की पृष्ठभूमि से उठकर धार्मिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी जान को जोखिम में डालकर खड़े हो गए। उन्होंने जो कुछ किया ईश्वर के आदेश से ही किया। उनकी साधना, आत्मा, परमात्मा एवं जीवन की विविध अनुभूतियाँ कवित्वमय वाणी में जब उद्घोषित होने लगीं तो उनके सम्पर्क में रहने वाले संतों, श्रद्धालु, शिष्यों तथा जनता ने उन्हें उपयोगी समझकर अपने मस्तिष्क में अंकित कर लिया, कुछ ने उन्हें आगे पीछे लिपि बद्ध भी किया। जैसे पहाड़ी घाटी में तेज आवाज से चिल्लाने पर कुछ देर तक वाणी की प्रतिध्वनि गूँजती रहती है, उसी तरह महान् रचनाकार की वाणी जनता के हृदय-गुहा में ध्वनित, प्रतिध्वनित होती है, यह सिलसिला शताब्दियों तक चलता रहता है। बड़ा रचनाकार सिर्फ रचना नहीं बल्कि रचनात्मक क्षमता को उत्तेजित भी करता है। उसके पाठक और श्रोता उसकी रचना में अपनी रचना को भी मिलाने का प्रयत्न करते हैं या बड़े रचनाकार को प्रमाण (आप्त) मानकर अपनी रचना को उसके नाम की मुहर से प्रचारित, प्रसारित करने का दुस्साहस भी करते हैं।

जैसे बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था कि अपनी-अपनी वाणी में धर्म का प्रचार करो वैसा आदेश कबीर ने भले ही न दिया हो किन्तु उनकी भाषा-नीति कुछ वैसा ही संकेत देती है, अपनी बात को प्रस्तुत करते समय, देश, काल एवं पात्र का अवश्य ध्यान रखो कबीर की वाणी को उनके अनुयायियों तथा श्रद्धालुओं ने अपनी-अपनी भाषा में प्रचलित किया, फलस्वरूप कबीर की वाणी का मूल पाठ निर्धारित करना अत्यन्त कठिन हो गया।
हिन्दी साहित्य की बिखरी हुई सामग्री की खोज के आरंभिक चरण में अन्वेषकों के मन में अधिकाधिक सामग्री पा लेने की लालसा थी। शुरू में कबीर से सम्बन्धित प्रभूत सामग्री उपलब्ध हुई। प्रामाणिक, अप्रामाणिक पाठों पर आधारित अनेक बीजक, पदावलियाँ तथा ग्रंथावलियाँ प्रकाशित हुई।

दूसरे चरण में कबीर वाणी का वैज्ञानिक पाठ निर्धारित करने का कार्यक्रम शुरू हुआ, विद्वानों ने वैज्ञानिकता के नाम पर बड़ी निर्ममता से काट-छाँट शुरू की। डॉ.पारसनाथ तिवारी जिनका पाठ सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है, उन्होंने कबीर ग्रंथावली का आकार काफी छोटा कर दिया। इसमें मात्र 200 पद, 42 रमैनी तथा 747 साखियाँ स्वीकृत हैं। मुझे श्याम सुन्दर दास की ग्रंथावली कतिपय कारणों से अधिक प्रामाणिक लगती है, हिन्दी जगत में उसकी स्वीकृत भी अपेक्षाकृत अधिक है। वैज्ञानिक पाठ निर्धारण में सबसे अधिक उपेक्षा लोक मानस में प्रतिष्ठित कबीर के पाठों की हुई है। लोक में कबीर की जो वाणी मौखिक परम्परा से चली आ रही है उसको शत-प्रतिशत शुद्ध तो नहीं माना जा सकता किन्तु उसकी मूल चेतना में कबीर की चेतना मौजूद है उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। डॉ.माता प्रसाद गुप्त, श्यामसुन्दर दास, डॉ.रामकुमार वर्मा, डॉ.पारसनाथ तिवारी, जयदेव सिंह, डॉ.शुकदेव सिंह आदि अनेक विद्वानों द्वारा संपादित कबीर के पाठ को हिन्दी के विद्वान तथा प्रबुद्ध पाठक प्रामाणिक मानकर स्वीकार करते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के परिशिष्ट में जो कबीर वाणी को संकलित किया है उसमें लोक परम्परा भी अनुस्यूत है। मैंने ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादन उपर्युक्त ग्रंथों के आधार पर किया है। इसमें इस बात पर विशेष ध्यान रहा कि कोई भी परम्परा पूरी तरह उपेक्षित न रहे।
कबीर के पाठ-निर्धारण के साथ ही अर्थ निर्धारण की समस्या कम जटिल नहीं है। विद्वानों ने उनकी वाणी को अपने तरीके से खींचा ताना है। उनकी व्याख्या में कबीर कम और व्याख्याकार अधिक उजागर हुआ है। मैंने कबीर की वाणी को कबीर की सहज चेतना के अनुकूल ग्रहण करने की चेष्टा की है। उनमें निहित अर्थ को उद्घाटित करने का मेरा विनम्र प्रयास कितना सफल हुआ है, इसका निर्णय सुधी पाठक तथा विद्वान ही कर सकते हैं।
15-8-2001

रामकिशोर शर्मा
हिन्दी विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद


१. कबीर का जीवन-वृत्त


कबीर का जीवन-वृत्त अनेक दैवी कल्पनाओं, संभावनाओं एवम् लोक गल्पों पर आधारित है। जिन सूत्रों से कबीर के जीवन-वृत्त को गढ़ा गया है, वे अविश्वसनीय अधिक, विश्वसनीय कम हैं। जब कोई अतिशय प्रतिभाशाली अलौकिक व्यक्तित्व अवतरित होता है तो कार्य-कारण की सामान्य श्रृंखला टूटती-बिखरती नजर आती है। सामान्य मनुष्य को उस व्यक्ति के विषय में बहुत कुछ नये तरीके से सोचने-समझने के लिए विवश होना पड़ता है, यही विवशता तरह-तरह के अनुमानों एवम् अटकलों को जन्म देती है। वास्तविकता को आवृत्त करके अनुमान एवम् अटकलें ही प्रमुख प्रमाण बन जाती हैं। कबीरदास के जन्म-स्थान, माता-पिता, परिवार, जाति, संप्रदाय आदि के विषय में परस्पर विरोधी निष्कर्ष उपर्युक्त कारणों से ही निकाले गये। कुछ मान्यताएँ जो शताब्दियों के प्रचलन के कारण रूढ़ होकर सत्य प्रतीत होने लगती हैं। सामान्य जन आस्था उन्हें स्वीकार कर लेती है। विद्वत् समाज भी किसी पुष्ट एवम् विश्वसनीय विकल्प के अभाव में लोक आस्था से ही जुड़ जाता है। बीच-बीच में ऐसे भी स्वर उभरते हैं, जो बड़ी बेरहमी से उस आस्था पर प्रहार करते हैं। भले ही वह आस्था टूटे या न टूटे, लेकिन प्रहार करने वाला अपनी कोशिश तक हर्षित अवश्य होता है।

कबीर के विषय में अपना मत प्रस्तुत करने वाले न तो गतानुगतकों की कमी है और न क्रांतिकारियों की। ऐसी परिस्थिति में यदि हम यही कहें कि ‘कबीर जैसा है तैसा रहै, तू बानी के गुन गाय’-यह पंक्ति कबीर की उस उक्ति की नकल पर रची गयी है, जिसमें कबीर ने कहा है कि ‘हरि जैसा तैसा रहै, तू हरषि-हरषि गुन गाय।’ कबीर का जन्म स्थान का श्रेय चाहे जिस गाँव, नगर, प्रदेश, देश को दिया जाए, उनकी जाति-पाँति का चाहे जो निर्धारण किया जाए लेकिन कबीर की सृजनशीलता के विविध पक्षों का जो रूप एवम् जो महत्व हमारे सामने है उसको न तो न्यून किया जा सकता है, और न ही उसे नकारा जा सकता है। जो साधक जीवन-पर्यन्त जाति-पाँति, देश-काल की सीमाओं के विरुद्ध संघर्षरत रहा है, उसकी उन्हीं सीमाओं की तलाश, अपने आप में कितनी सार्थक होगी। फिर भी एक महान् रचनाकार के जीवन-सूत्रों और उसके सृजनात्मक परिवेश के अन्वेषण को नितान्त महत्वहीन भी नहीं कहा जा सकता।

कबीरदास के जन्म और उद्बोधन दोनों प्रसंगों से रामानन्द का नाम जुड़ा हुआ है। इसे संयोग या दुर्योग ही कहा जाएगा कि रामानन्द जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी दक्षिण भारत से उमड़ने वाले भक्ति आन्दोलन के हिन्दी-प्रदेश के प्रथम ग्राहक थे जिसमें शूद्रों एवम् स्त्रियों के मुक्त होने का उपाय निहित था, जिन्हें तथाकथित ब्राह्मणों ने (जैसा कि सभी का आरोप है) वेद मार्ग से वंचित कर रखा था। रामानन्द के जिन बारह शिष्यों का उल्लेख भक्तमाल में मिलता है, उनमें अनेक जाति-धर्म के लोग थे, ऐसी स्थिति में रामानन्द का शिष्य बनने के लिए कबीर को विशेष युक्ति का सहारा लेना पड़ा हो, यह विश्वसनीय नहीं लगता। कबीर ने यद्यपि एक जगह कहा है-‘काशी में हम प्रकट भये हैं रामानन्द चेताए’ लेकिन इस उक्ति को विद्वान् को आलोचकों ने प्रामाणिक नहीं माना है कि कबीर के गुरु रामानन्द थे।

कबीर के जन्म के सम्बन्ध में ऐसी लोक मान्यता है कि कबीर का जन्म रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, किन्तु उक्त ब्राह्मणी ने लोक-लज्जा वश काशी के पास लहरतारा नामक स्थान पर नवजात शिशु को फेंक दिया और संयोगवश उसी मार्ग से अली या नीरू-नीमा नाम के जुलाहे गुजर रहे थे कि नवजात शिशु पर दृष्टि पड़ गयी और उसे घर ले आये, उसका पालन-पोषण किया और शिशु का नाम कबीर रखा। असाधारण परिस्थितियों में जन्मे कबीर के जन्म के विषय में जो लोक कथा प्रचलित है वह कबीर का संबंध किसी न किसी रूप में ब्राह्मण-वंश से जोड़ती है। आशीर्वाद की बात तो बहुत वैज्ञानिक नहीं प्रतीत होती किन्तु विधवा ब्राह्मणी के रूप-सौन्दर्य पर कोई महात्मा रीझ गया होगा और उसी के दैहिक संपर्क के फलस्वरूप बालक का जन्म हुआ होगा। यह महात्मा रामानंद से कोई भिन्न व्यक्ति रहा होगा। रामानन्द के आशीर्वाद की बात बाद में कल्पित कर ली गई।

कबीर ने अपने माता-पिता के नाम का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु ऐसा माना जाता है कि कबीर के पिता एक बड़े गोसाईं थे- ‘पिता हमारो बड़ गोसाईं। तिसु पिता पहिहउं किंउ करि जाई।’ लेकिन उक्त पद का अर्थ है कि मेरा पिता सबसे बड़ा स्वामी (बड़ा गोसाई) अर्थात् जगत्पिता है। ऐसे पिता के नजदीक मैं कैसे जाने की हिम्मत कर सकता हूँ। स्पष्ट है कि उक्त बात कबीर ने अपने निर्गुण ब्रह्म के लिए ही कहा है। अत: कबीर के पिता गोसाईं नहीं हो सकते। ‘रामानंद दिग्विजय’ ग्रंथ में लिखा है कि कोई आकाशगामी देवता अपनी प्रियतमा की पीड़ा से व्यथित था। उसका वीर्य स्खलन काशी के लहरतारा तालाब के एक कमल के पत्ते पर हुआ जिससे एक बालक हो गया। एक अन्य विचार के अनुसार कबीर के वास्तविक पिता का नाम स्वामी अष्टानन्द था, जिन्होंने कबीर की ज्योति का दर्शन सर्वप्रथम किया था और इन्होंने इसकी सूचना रामानन्द को दी थी परन्तु हिन्दू प्रथाओं के भय से कबीर की माता को उन्होंने पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया।
नाभादास ने अपने भक्तमाल में दो छप्पयों में कबीर के विषय में कुछ सूचनाएँ दी हैं। प्रथम छप्पय में कबीरदास की वाणी की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। जैसे उनके द्वारा स्थापित भक्ति की विशिष्टता, योग, यज्ञ, व्रत और दान की तुच्छता। हिन्दू और तुर्क दोनों के प्रमाण हेतु रमैनी, सबदी और साखी की रचना, वर्णाश्रम धर्म की उपेक्षा आदि। साथ ही रामानन्द के शिष्यों में कबीर की भी परिगणना की गई है। दूसरे छप्पय की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो।।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्यावति नरहरि।
पीपा वामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरो शिष्य प्रशिष्य एकते एक उजागर।
विश्व मंगल आधार सर्वानन्द दशधा के आगर।।
बहुत काल बपु धारि कै प्रनत जनत को पार दियौ।
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगरतन कियौ।

(भक्त माल छप्पय 31, पृ.288)


पूर्वोक्त बाह्य साक्ष्यों को यदि प्रामाणिक न माना जाए तो भी इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कबीरदास रामानन्द के ब्राह्मण धर्म के नहीं बल्कि उनके द्वारा प्रवर्तित भक्ति-साधना के सशक्त उत्तराधिकारी थे। कहा जाता है कि ‘भक्ति द्राविड़ी ऊपजी लाये रामानन्द, प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नवखंड’। रामानन्द और कबीर का यही सामीप्य अनेक किंवदंतियों का स्रोत है। निष्कर्ष रूप में कबीर रामानन्द से तीन अर्थ में जुड़ते हैं प्रथम जन्म के सम्बन्ध में, द्वितीय गुरु के रूप में और तृतीय भक्ति के उत्तराधिकारी के रूप में। इनमें तृतीय सम्बन्ध ही निर्विवाद रूप से मान्य हो सकता है शेष संदिग्ध हैं।

इन कथाओं से इतना स्पष्ट है कि कबीर को जन्म लेते ही उन्हीं बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए छोड़ दिया गया जिन बुराइयों के परिणामस्वरूप कबीर ने देह धारण की।
कबीरदास के जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद है। कबीर के जन्म-स्थान से जुड़ने वाले चार गाँव या नगर हैं-मगहर, बेलहरा, मिथिला और काशी। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में एक पंक्ति है-

‘पहिले दरसनु मगहर पाइओ पुनि कासी बसे आई।’ इससे स्पष्ट है कि कबीर ने पहले पहल मगहर में संसार या ईश्वर का दर्शन किया, बाद में काशी में बस गए। डॉ.बड़थ्वाल इसी आधार पर कबीर का जन्म मगहर मानते हैं। मगहर प्रधानतया जुलाहों की बस्ती है (हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ.5)। मगहर के प्रति कबीर का विशेष अनुराग भी इस तथ्य को प्रमाणित करता है। डॉ.रामकुमार वर्मा का विचार है कि ‘मृत्यु के समय उनका मगहर लौट जाना, मनुष्य की उस स्वाभाविक प्रेरणा का प्रतीक हो सकता है, जिससे वह अपनी जन्म-भूमि या उसके समीप ही आकर मरना चाहता है। अत: मेरे दृष्टिकोण से कबीर का मगहर में जन्म मानना अधिक युक्ति संगत है।’ (संत कबीर, पृ. 76) डॉ.चन्द्रबली पांडेय बनारस डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के आधार पर कबीर का जन्म आजमगढ़ जनपदान्तर्गत बेलहरा नामक गाँव को मानते हैं। यह बेलहर पोखर जनता द्वारा लहरतारा नाम से प्रचलित किया गया।

सुभद्र झा ने कबीर का जन्म मिथिला माना है। उनकी मान्यता दूरारूढ़ कल्पना पर आधारित है। कबीर का जन्म काशी में हुआ था इस पक्ष में निम्नलिखित पंक्तियां उद्धृत की जाती हैं-तू ब्राह्मन मैं कासी का जोलहा, चीन्हि न मोर गियाना।’ (कबीर ग्रंथावली-पारसनाथ तिवारी, पृ. 109) अनंतदास ने कबीर परचयी में कबीर को काशी का जुलाहा कहा है। जनश्रुति के अनुसार कबीर काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे पाए गए थे। काशी के साथ कबीर का गहरा लगाव था। ‘आदि ग्रंथ साहब’ में लिखित अधोलिखित पद के आधार पर यही सिद्ध होता है-

ज्यों जल छाँड़ि बाहर भयो मीना।
पूरब जन्म है तप का हीना।।
अब कुहराम कवन मति मोरी।
तजिले बनारस मति भई थोरी।।
बहुत बरस तप कीया कासी।
मरनु भया मगहर की वासी।।
कासी मगहर सम विचारी।
ओछी भगति कैसे उतरसि पारी।।
कहु गुरु गजि सिव सम्भु को जानै।
मुआ कबीर रमता श्री रामै।।

गुरु की महिमा का विविध रूपों में गान करने वाले कबीर के गुरु का भी निश्चित रूप से पता नहीं है। वह कौन-सा महात्मा था जिसके समक्ष अक्खड़ मिजाज का यह सन्त श्रद्धावनत हुआ। भक्ति-भाव के अग्रदूत रामानन्द को परम्परया इस गौरव से विभूषित किया जाता है। भक्ति के क्षेत्र में जाँति-पाँति के कठोर बन्धन की शिथिलता तथा जातीय समानता को उद्घोषित करने वाले रामानन्द, कबीर जैसे शिष्य को क्या सहज रूप से स्वीकार कर सके थे ? कबीर को, जो जाति का जुलाहा और धार्मिक संप्रदाय की दृष्टि से मुसलमान था और जो अपनी इन सीमाओं को लाँघकर हिन्दू गुरु की शरण में आना चाहता था, रामानन्द की दीक्षा मिल सकती थी ? भारतीय समाज में यह पहली समस्या नहीं थी। एकलव्य के सामने भी इसी तरह की कठिनाई उत्पन्न हुई थी। कबीर की समस्या और भी गम्भीर थी क्योंकि धनुर्विद्या की अपेक्षा ब्रह्मविद्या अधिक पवित्र एवं गोपनीय है। कबीर अजीब द्वन्द्वात्मक स्थिति में थे। बिना गुरु के लोग उनकी बातों को सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे। और कोई महात्मा उनको शिष्य बनाने को तैयार नहीं था। रामानन्द से भी समाज और धर्म की मर्यादा तोड़ी नहीं जा सकी। कबीर ने बड़ी चतुराई से उपाय ढूँढ़ निकाला। रामानन्द नित्य पंचगंगा घाट पर ब्राह्म मुहूर्त में ही स्नान करने जाते थे। घाट की सीढ़ियों पर कबीर पहले से ही जाकर लेट गये। स्नान करके लौटते हुए रामानन्द जी का पाँव अँधेरे में कबीर के ऊपर पड़ गया और उनके मुँह से ‘राम-राम’ निकल पड़ा। कबीर ने इसी को गुरुमंत्र मानकर अपने को रामानंद का शिष्य समझ लिया। रामानन्द और कबीर के इस रिश्ते का प्रमाण मात्र लोक प्रसिद्धि है। इसके सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक प्रबल प्रमाण नहीं मिलता। कुछ विद्वानों के अनुसार ‘मीर तकी’ नामक एक पीर कबीर के गुरु थे। कबीर ने झूँसीवासी मीर तकी से सत्संगति भले ही की हो किन्तु उन्हें गुरु रूप नहीं माना। कुछ मुसलमान कबीर पंथियों का विचार है कि सूफी फकीर शेख तकी कबीर के गुरु थे। कबीर ने शेख के प्रति जो सम्बोधन किया है उसमें वह आदर भाव नहीं है जो गुरु के प्रति अपेक्षित होता है। इस मत को प्रस्तुत करने का आधार कबीर की अधोलिखित पंक्तियाँ हैं जिन्हें कुछ विद्वान असंदिग्ध रूप से प्रमाणिक भी नहीं मानते-

मानिकपुरहि कबीर बसेरी, मदहति सुनि शेख तकि केरी।
ऊजी सुनी जौनपुर थाना, झूँसी सुनि पीरन के नामा।।

कबीर का यह दोहा यदि प्रामाणिक है तो रामानन्द ही उनके गुरु ठहरते हैं-

सद्गुरु के परताप ते, मिटि गयो सब दुख दंद।
कह कबीर दुविधा मिटी, गुरु मिलिया रामानन्द।।

कबीर का आयु 70 वर्ष से लेकर 120 वर्ष तक मानी जाती है। कबीर की मृत्यु-तिथि को प्रकट करने वाले अधोलिखित दोहे प्रसिद्ध हैं-

संवत पंद्रह सौ पछत्तरा, किया मगहर को गवन।
माघ सुदी एकादशी रल्यो पवन में पवन।।
पन्द्रह सौ औ पाँच में, मगहर कीन्हों गौन।
अगहन सुदी एकादशी मिल्यौ पौन में पौन।।

सिकन्दर लोदी की समकालीनता, गुरुनानक से कबीर की मुलाकात कबीर के प्रधान उत्तराधिकारी धर्मदास के द्वारा दिये गये वाणी संग्रह आदि तथ्यों से जुड़ी हुई तिथियों के आलोक में श्यामसुन्दर दास ने कबीर की मृत्यु को संवत् 1575 को संगत तिथि के रूप में निर्धारित किया है।

कबीर ने अपने इस लम्बे जीवनकाल में बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ जाना, बहुत कुछ सुना और बहुत कुछ गुना। जाँचते-परखते ग्रहण करते और छोड़ते उनका सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हुआ एक ही तत्त्व उनके पास ऐसा था जिसको वे जीवन पर्यन्त अपने हृदय में सम्हाले रहे वह तत्त्व था राम। कहा जाता है कि कबीर ने विवाह भी किया था किन्तु जब विचार किया तो उसे छोड़ दिया। कुछ विद्वानों का दावा है कि कबीर की दो पत्नियाँ थीं-लोई और रामजनिया या धनिया। जिन छन्दों के आधार पर इन स्त्रियों की बात कही जाती है उनका सामान्य अर्थ से अलग आध्यात्मिक अर्थ भी है। ऐसी परिस्थिति में निश्चित ढंग से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। नारी की बराबर निन्दा करने वाले कबीर ने दो-दो विवाह किया होगा, कुछ असंभव सा दीखता है। आँखिन की देखी में विश्वास जमाने वाला संत कबीर एक विवाह के अनुभव से गुजरकर पारिवारिक समस्याओं से परिचित हुआ होगा। जिस तरह पत्नियों के विषय में विद्वानों ने दूर की कौड़ी खोज ली है उसी तरह पुत्र कमाल और पुत्री कमाली के विषय में कुछ ब्यौरे इकट्ठे कर लिये हैं।

कबीर का जीवन भिक्षा-वृत्ति पर निर्भर नहीं था। वयन कर्म द्वारा उन्होंने अपनी जीवका चलाने का प्रयत्न किया। इतना अवश्य है कि बीच-बीच में राम की भक्ति में लीन हो जाने के कारण तनना-बुनना अवरुद्ध हो जाता था। कबीर के इस मस्ती से उनकी माँ बहुत दुखी रहती थीं-

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई।
ये बारिक कैसे जीवहिं रघुराई।।

कबीर अपनी भक्ति-भावना में ‘ज्ञान’ की महिमा को प्रतिपादित तो करते हैं किन्तु उनका यह ज्ञान पुस्तकीय ज्ञान से अलग अनुभूतिजन्य ज्ञान है। वस्तुत: वे प्रेम और भक्ति रहित ज्ञान के विरोधी थे। प्रारम्भ में शास्त्रीय ज्ञान की महत्ता उन्हें भी मान्य थी लेकिन बाद में उनका ध्यान भक्ति-योग की ओर गया-

मैं जाण्यूँ पढ़िबौ भलौ, पढ़िबा थैं भलौं जोग।
राम नाम सूं प्रीति कर, भल भल नीदौं लोग।।

अन्त में तो वे सलाह देते हैं-

कबीर पढ़िबो दूर करि, पुस्तक देह बहाइ।
बाँवन अषिर सोधि करि, ररै ममै चितलाइ।।



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